कुछ अपनी भी

क्या तितलियाँ फिर से आयेंगी

में जब छोटा बच्चा था अपने नन्हें कदमों से स्कूल जाया करता था तब मेरे घर और स्कूल के बीच एक छोटा सा जंगल पडता था। उस जंगल में उगी कुदरती झाडियां और खुदरौ रगं बिरगें फूल उन पर अठखैलियां करती नन्हीं मुन्नी तितलिया जिन्हें देखकर मे सब कुछ भूल जाता था। और जलदी जलदी स्कूल का काम खत्म कर छुटी का इन्तज़ार करता था कि कब घन्टी बजे और मै अपनी उन नन्ही दोस्तों को जाकर मिलू उनके साथ खेलू ।मेरी दोस्त खूबसूरत तितलियों के साथ मेरा खुशनुमा बचपन कब बीत गया पता ही नही चला।फिर में एक दिन रोज़गार की तलाश में अपना गाव छोड कर बहुत दूर चला गया। और नर्इ दुनिया की भाग दोड में इतना खो गया कि अपने बचपन के सभी दोस्तों को भूलगया कामयाबियो की सीढीया चढता गया चढता गया और अपनी असल ज़मीन को भूलता गया। एक दिन मे अपने कमरे मे बैठा कुछ लिख रहा था। मेने लिखते लिखते अगला पैज बदला तो मेने देखा कि उस पर किसीने डा, बशीर बद्र की एक गज़ल की चार लाइने लिख दी थी। जो कुछ यूँ थी । 

ये शोहरत भी लेलो ये दोलत भी लेलो, 
भले छीनलो मुझसे मेरी जवानी ।
मगर मुझको लौटादो वो बचपन का सावन 
वो कागज़् की कश्ती वो बारि का पानी। 

यह गज़ल पढते पढते मेरी आखों का सूखा पानी उबल आया।मेनें अपनी छलकती आखों को सम्झाने की कोशीश भी की मगर हर आँसू की बूँद में मेरे बचपन के अक्स उभरने लगे जेसे और में उलझने लगा में यह समझने की कोशिश करने लगा की मेरी हकीकत क्या है , वो जो में अपने पैरहन अपने जारो जमाल से के एहसास से अब तक खुद को समझता रहा या वो की जो इन गरम पानी की बूंदों में पुरानी सी हकीकत नज़र आरही है वो हूँ, जलते आंसुओ से धूएँ की तरह उठ कर मेरे वजूद पर पुराने यादों के साये छाने लगे और मुझसे अब रहा न गया मे उसी वक्त गाव की और चल दिया । अब मे सारे रास्ते अपने गाव की उन बिछडी गलियों को याद कर मन ही मन धूल चढे आर्इने को साफ करने लगे। और सोचने लगा मेरा वो पुराना स्कूल जो अब और पुराना हो चुका होगा वो बरगद का बूढा पैड जिस की खोह मे चकोर अण्डे देती थी, वो रास्ते की तितलिया जिनके वो खूबसूरत पंख जिन्हे में छूता था तो उनका रगं निकल कर मेरे हाथों पर लगजाता था। और जब मुझे याद आया कि मेरे छूने से उन मासूम तितलियों के पंखों का रगं निकल जाया करता था तो मुझे बहुत अफसोस हुआ और मेने तैय कर लिया के में उन तितलियों से अब माफी मागूगा । यही सूचते सूचते में गाव में पहुच गया । सब पहले मेरा स्कूल सामने आया और स्कूल देखकर मेरा दिल धक से रहगय। क्यो कि मे जिसका ख्याल लेकर आया था वो नख ऐ मकान अब यहा न थे। बलकि यहा तो शान्दार इमारत थी जिसमे अब मार्डन स्कूल था ।फिर मेने खुद को समझाया कि ठीक ही तो है अब हमने कितनी तरक्की करली के गाव भी शहर की मानिन्द हो गये ।फिर में गाव की चोपाल में खडे उस बुज़ुर्ग  बरगद की और बढा जिसके नीचे हम कन्चे खेला करते थे। और मे चलते चलते यह सोचने लगा की काश  वो चकोर अभी भी जि़न्दा हो जिसे में बचपन मे मुह चिडाया करता था। और फिर खुदसे ही कहता की  पागल जानवरों की उमर इतनी थोडा ही न होती है।मगर दिल फिर भी न जाने क्यू चमतकार की दुआ कर रहा था।मे फिर दिल को उम्मीद बंधाता कि वो नही तो क्या उनके बच्चे तो होगे ही ना।यही सब सोचते सोचते में चोपाल तक आगया ।मेने चौपाल की और नज़र उठायी तो नज़र पर यकीन न हुआ। वो सारे ख्याल जो मेने अभी अभी बुने थे टूट कर तस्बीह के दानो की तरह बिखर गये। क्यू कि अब तक उस बुज़ुर्ग बरगद की बूढी लकडिया शायद किसी के चूलह का इंधन बन चुकी थी । अब उसका नामो निशां यहा मौजूद न था।मेने अपने लडखडाते कदमों को सम्भाला की कोशिश भी की मगर मेरे वजूद का बोझ मेरे पैर ना संभाल सके और कुछ पल वहीं बैठ गया ।अब मे हिम्मत नही जुटा पारहा था कि उस जगह तक जाउ जहा मे तितलियों के सगं खेला करता था। शायद आज मेरा दिल उन तितलियों के रगं से भी नाज़ुक हो गया था।जो बिन छुऐ ही बेरंग हुआ जा रहा था। मुझे तो किसी ने छुआ भी नही था फिर भी मेरी सासो का रगं लाल हो गया था और दिल सफेद पडता जा रहा था। फिर भी में यह सोच कर उठा कि कुछ भी हो में कम से कम उन तितलियों के घर को तो बचाउगा जिन के साथ मे खेला करता था।मे सहमे क़दमो से जंगल ओर बढा और यह देख कर मेरी खुशी  का ठिकाना न रहा कि वो झाड का जंगल आज भी मौजूद था।सिर्फ मौजूद ही नही था बलके उसे तो ओर भी खूबसूरत पार्क के जैसा बना दिया गया था। मे खुशी खुशी जाकर हरी घांस बैठ गया और फूलों की और तकने लगा कि कही छुपी बैठी तितलिया अब बाहर आयेगी और मुझसे पूछेगी कि तुम लौटआये।मगर में घन्टो इंतज़ार करता रहा, राह तकता रहा, मगर कोर्इ तितली मेरा हाल पूछने नही आर्इ ।एक मुददत इन्तज़ार करने के बाद मेरी थकी थकी सी निगाहों में नीन्द आने लगी । फिर मुझे अचानक ऐसा लगा जैसे में जानवरों की भाषा सुन्ने और समझने लगा हू। तभी कहीं दो तितलिया उडती हुर्इ उस बग़ीचे में आपहूची और एक फूल का रस पीने के लिऐ फूल की ओर बढी । तभी एक उचे पैड से एक और तितली चिल्लार्इ।यह कहते उनकी और बढी कि सुनो सुनो इस फूल पर मत बैठना। पहली दो तितलियो मे से एक ने पूछा क्यू हमतो बैठेगे भी और रस भी पियेगे इस सारे बग़ीचे पर आपका अधिकार है क्या। और फूल पर बैठने लगी मगर वो पैड वाली तितली उनके रास्ते में आगई और सम्झाते हुऐ कहने लगी कि चलो आप दोनो मेरे साथ चलो यहा खतरा है।तुम्हारी जान जा सकती है।इन फूलों पर इन्सानों ज़हर छिडक दिया। फिर दो तितलियों में से एक ने सवाल किया क्यू इन्सानो की हमारे से क्या दुश्मनी है।पैड वाली बूढी तितली ने कहा तुम मेरे साथ आऔ में तुम्हें सारी कहानी सुनाती हू । और फिर तीनो तितलिया वहा से दूसरी की और उडगर्इ। उडते उडते बहुत दूर एक बयाबान जंगल में बैठ गर्इ । फिर दोनो तितलियों को सम्झाते हुऐ बूढी तितली बोली अब मे बताती हू के इन्सान हमारा दुशमन क्यों बन गया । हम और इन्सान कुदरत की इस हसीन दुनिया में मिल जुल कर रहते थे। वो हमारे लिये काम करते थे और हम उनके लिये काम करते थे। फिर एक तितली ने सवाल किया भला इन्सान हमारे लिये और हम इन्सानो के लिये क्या काम कर सकते हें भला?।तब बूढी तितली ने जवाब दिया।इन्सान इस धर्ती पर फल और फूल उगाता था और हम उन फूलों से रस पी कर अपनी भूख मिटाते थे। और हमारे पैरों में लग कर जो पराग एक फूल से दूसरे फूलों तक जाता था। जिस के कारण फूलो में का पराग कण से फल बनजाते थे।जिन से इन्सान अपना पैठ भरते थे। मगर इन्सान का लालच बढता गया उसे हमारा फूलों पर आना खराब लगने लगा, उन्हे हमारे अण्डो बच्चों का घर अपनी जागीर लगने लगा ।यहा तक कि वो हमारे दोस्त अब दुशमन बन गये। अब वो हमारे खाने पर ज़हर छिडकने लगे। हमारी नस्ल इन्सान की इस नापाक साजिश से अंजान थी और ज़हर खाकर मरने लगी। इन्सान ओर भी राक्षस होता गया। यहा तक कि हमारी पूरी नस्ल को खत्म कर डाला। फिर आज अचानक तुम दोनो को जोडे के रूप मे दिख कर एक उम्मीद कि किरण फूटी कि शायद में तुम्हे बचालू और हमारा वन्स चल निकले अब आगे यह जिम्मेदारी तुम दोनो को निभानी होगी ।  बूढी तितली ने दोनो तितलियों को सम्झाया के तुम्हे कहीं दूर जाना होगा इतनी दूर जहा इन्सान की परछार्इ तक न पहूचे। दोनों तितलियों न कहा हा हम चले जायेंगे मगर आप भी तो चलो । उस पैड वाली बुज़र्ग तितली ने जवाब दिया तुम जाऔ में यही रहूगी मे तो यह देखना चाहती हू कि इस इन्सान ने जो खाई   हमारे लिऐ खोदी है। वो इन्सान खुद इस मे कब गिरेगा।और तभी मेरे एक बचपन के दोस्त ने मुझे आकर नीन्द से जगाया में उठकर बैठ गया मगर मुझे यकीन नहीं हो रहा था कि मे कब उस मखमली घास पर सो गया था। मुझे यकीन नहीं हो रहा था कि मे यह ख्वाब देख रहा था।कुछ पलों के बाद में सम्भल गया। और सोचने लगा आखिर में भी तो इन्सान अगर एसी मख्मली घास जिस में कीडे मकोडे का खतरा न हो किसी को भी नीन्द आ ही जायेगी। और उठ कर वापस गाँव  की छोड़ कर चल दिया मेरे दोस्त ने मुझे पीछे से एक बार पुकारा कहा कि कहा जारहे हो। मगर उसकी पुकार में वो सदा न थी के मेरे क़दम रूकजाते। फिर दूसरी आवाज़ में कहा यार आये हो तो घर चलते, यह वो पुकार न थी जिस की मेने कल्पना की थी ,, और मे  शान्ती की तलाश में और अशान्त होकर एक अन्जाने सफर की ओर! यह सोचते हुए चलदिया ... क्या तितलियाँ फिर से आएंगी 

बागबाँ


बागबाँ ने बुलबुलों का नशेमन बेच डाला है
F D Iके सैयाद को ये चमन बेच डाला है
लहू से अपने सींचा जिस गुलिश्तां को शहीदों ने
अशफाक ओ शेखर का वो गुलशन बेच डाला है
अभी खुश्क भी ना हुआ परवाना ऐ आज़ादी का लहू
की एक ज़ालिम ने शहीदों का कफ़न बेच डाला है
लड़े मुल्ला ओ पांडे जिस चाहतें तख्ते शाही को
फकत वो तख़्त हे बाकी वतन ये बेच डाला है
तेरी चींखो से वाहिद कुछ न होगा ये समझले तू
यहाँ परवानो ने फिदा होने के फन को बेच डाला है 

नंगे पाँव

एक कबूतर और कबूतरी एक शाख पर बेठे थे . कबूतर और कबूतरी एक दुसरे के पंख ठीक कर एक दुसरे को संवार रहे थाई प्यार कर रहे थे ,तभी कबूतरी नज़र पास के खेत में एक नाचते हुए मोर पर पड़ी भाध्वे की धूंप में मोर अपने खूबसूरत पंखो को अपने ऊपर फेला कर नाच रहा था .और अपनी खूबसूरती पर नाज़ कर रहा था पास में ही मोरनी नंगे पांव खड़ी इंतज़ार कर रही थी की कब उसका महबूब खुद से बाहर आये और नज़र उसे भी देखले . मगर अफ़सोस क...ी मोर अपनी खूबसूरती पर फ़िदा नाचता रहा . तभी कबूतरी कबूतर को एहसास दिलाया की देखो वो मोर अपनी मोरनी के लिए केसे नाच रहा है तुम्हे भी कभी ख़याल आया मेरा. देखो उस मोर से कुछ सीखलो और कबूतर जब उधर देखा तो उसे तपती धूंप में नंगे पाँव मोरनी इंतज़ार करती नज़र आई कुछ पल कबूतर उसके नंगे पाँव की तपिश महसूस करता रहा , और फिर बे शाखता उसके लबों से निकला की अगर खुदा ने इन लम्बे पंखों की दोलत मुझे बख्शी होती तो में नाच नहीं पता बलके नंगे पाँव तपते अपने महबूब के ऊपर उन पंखों का साया करदेता ताकि उसके पाँव और मेरे सीने सीने को ठंडक मिले ...
तभी कबूतरी के खयालो में एक बुल्ले शाह नाम का फ़कीर यह गाते हुए गुजरा --कर इश्क की छाँव चला छैयां छैयां ... कबूतरी समझ गई की यह कबूतर पागल हे और वह कबूतर को तन्हा छोड़ कर उड़ गई
तसव्वुर.....
वाहिद नसीम

अब में क्या करूँ छट पटाहट सी है बेबसी सी है थक सा गया हूँ ..

आज बड़ी थकावट महसूस कर रहा हूँ ज़िन्दगी भर अपनी कहानियों में सच्चे किरदारों की विजय गाथा की इमेजिनेशन करता रहा ,कलम से ऐसे किरदारों की रचना करता रहा जिनके आचरण पर भारत को फक्र हो, भारतीय सभ्यता संस्कृति और जीवन मुल्ल्यों को सजाता सवांरता रहा, बंद कमरे में खुश होता रहा की में भी अपने देश के लिए उसकी हकीकत और सराहनीय तस्वीर को कागज़ के पन्नो पर सजा रहा हूँ . कुछ वक़्त पहले मेरे दोस्त ने मेरा मजाक उड़ाते हुए कहा तुम कहाँ हो किस दुनिया से आए हो फरिश्तों को इंसान का नाम देकर किस संसार की कहानी इस संसार के लिए लिखता रहता है , मेने बिना सोचे कहा यह तुम आज केसी बाते कर रहा है . मेरे दोस्त ने कहा यही तो में पूछ रहा हूँ .फिर मेने प्रक्टिकल अपनी पहचान बताये बिना दुनिया संपर्क में आया और मेने देखा के मेरा दोस्त सही था. मेरे दोस्त ने कहा की चलो आप की तसल्ली के लिए कुछ दिखता हूँ और वो मुझे एक तफ्तर में लेगाया. वहां एक कलर्क से बोला इनके वोटर कार्ड पर मकान नंबर चेंज होना है . ५० के बजाय ४९ होना है . कलर्क ने कहा की यह तो लम्बी परक्रिया है पहले जांच होगी फिर कहीं जा के चेंज होगा .मेने कहा यह ठीक ही तो कह रहे हें .मेरे दोस्त ने मुझे चुप किया और कहा नहीं यार अभी चाहिए खर्चा बता . कलर्क ने कहा १ हज़ार . मेने कहा अगर गाँव का नंबर डालना हो तो उसने कहा १५०० बस मेरे दोस्त ने मेरा हाथ पकड़ा बाहर लाया और कहा यही है भारत, जाओ जहाँ
जाओगे यही पाओगे . और मेने यही पाया/ अब में क्या करूँ छट पटाहट सी है बेबसी सी है थक सा गया हूँ ..