बड़ा सवाल यह है की क्या अमेरिका भारत की जनता का लहू बेच कर अपनी डूबती अर्थव्यवस्था की नैया को पार लगाना चाहता है जो की कम मात्रा में निर्यात और भारी मात्रा में आयात साफ़ दरसा रहा है की आने वाले कुछ सालों में भारत अमेरिका का बड़ा देनदार होगा जिसके कारण भारतीय अर्थव्यवस्था चरमरा जायगी और देश में अराजकता फैलने का ख़तरा बढ़ जाएगा में यह समझने का प्रयास कर रहा हूँ की आखिर भारत का हित क्या अमरीका की हर उलटी सीधी शर्त माने में छुपा है या कारण कुछ और है ?
पिछले दस सालों में दोनो देशों के बीच व्यापार बढ़कर पाँच गुना हो गया है। वर्ष 2001 में जहाँ सिर्फ़ 18 अरब डॉलर का व्यापार होता था तो इस साल वह बढ़कर 100 अरब डॉलर तक पहुँच गया है। दो देशों के बीच सैन्य-तकनीकी सहयोग भी बढ़ा है। इस दिशा में अब तक 9 अरब डॉलर के समझौते हो चुके हैं। लेकिन आर्थिक क्षेत्र में अमरीका भारत पर अपनी शर्तें लाद रहा है। वाशिंगटन इस बात की पूरी कोशिश कर रहा है कि भारत बड़ी अमरीकी व्यापारिक कम्पनियों को अपने घरेलू फुटकर बाज़ार में घुसने की इजाज़त दे दे। अमरीका का कहना है कि बड़े सुपर-बाज़ार क़ीमतें इतनी कम कर देंगे कि उनसे ख़रीददारों को बड़ा फ़ायदा होगा। लेकिन अमरीका को इस बात की कोई चिन्ता नहीं है कि ये बड़े सुपर-बाज़ार छोटे दुकानदारों और लाखों-करोड़ों फुटकर विक्रेताओं को पूरी तरह से ख़त्म करके बेरोज़गार बना देंगे, जिसकी वज़ह से भारत में सामाजिक तनाव बढ़ना शुरू हो जाएगा। फिर यह दौर भी तो अच्छा नहीं है। डॉलर के बढ़ते दाम या बढाए जाते दामो के कारण पहले ही संकट बाज़ार के सर पर मंडरा रहा है। उस पर अमेरिकी एजेंसी रेटिंग घटा कर भारतीय बाज़ार का मनोबल तोड़ने में लगी है , असल कारण क्या है इस पर एक नज़र.
वाशिंगटन में हुई भारत-अमरीका रणनीतिक-वार्ता में दोनो देशों के बीच एटमी ऊर्जा के क्षेत्र में आर्थिक सहयोग से जुड़े सवालों पर भी चर्चा हुई। जब अमरीका के राष्ट्रपति जार्ज बुश जूनियर ने अपने सत्ताकाल में भारत के साथ परमाणविक सौदा किया था तो ऐसा लगने लगा था कि अमरीकी कम्पनियों के सामने भारतीय एटमी ऊर्जा बाज़ार में घुसने का रास्ता पूरी तरह से खुल गया है। लेकिन भारत में बने न्यूक्लियर लायबिलिटी एक्ट यानी परमाणविक उत्तरदायित्त्व कानून ने सब गुड़ गोबर कर दिया और अमरीकी कम्पनियों की सारी आशाएँ धूल में मिल गईं। इस कानून की वज़ह से अमरीका की निजी कम्पनियाँ रूस और फ़्राँस की सरकारी कम्पनियों के मुक़ाबले घाटे में दिखाई देने लगीं।
भारत के एटमी ऊर्जा बाज़ार में पीछे छूट जाने पर अमरीका ने यह रणनीति अपनाई कि पैसा देकर एटमी ऊर्जा विरोधी पर्यावरण जनमोर्चे निकलवाने शुरू कर दिए। अमरीका ने दिसम्बर 2010 में जैतपुर, महाराष्ट्र में अपने पाले-पोसे हुए ग़ैरसरकारी संगठनों से इसी तरह का एटमी ऊर्जा विरोधी-मोर्चा आयोजित कराया, जहाँ फ़्राँसिसी कम्पनी अरेवा परमाणविक बिजलीघर बना रही थी। फिर तमिलनाडु के कुडनकुलम में भी ऐसे ही एटमी बिजलीघर के शुरू होने का विरोध कराया, जहाँ रूसी कम्पनी के सहयोग से एटमी बिजलीघर बनाया गया है। जबकि सवाल पर्यावरण की सुरक्षा का नहीं था। जैसे ही गुजरात में एटमी बिजलीघर बनाने के बारे में भारत-अमरीकी समझौता हुआ, विरोध का कारण समझ में आ गया। अमरीका चाहता था कि बाज़ार से अमरीकी कम्पनियों की प्रतिद्वन्द्वी रूसी और फ़्राँसिसी कम्पनियों को पीछे खिसकाया जाए।
यदि अमरीका के भूराजनीतिक उद्देश्यों की बात की जाए तो अमरीकी कूटनीति यह है कि भारत को न सिर्फ़ अमरीका का साथी बना लिया जाए, बल्कि उसे एशिया में अमरीकी नीतियों के विश्वस्त सहायक की भूमिका भी सौंप दी जाए। इसके लिए अमरीका लगातार भारत और चीन, भारत और पाकिस्तान तथा भारत और दूसरे देशों के बीच दिखाई देने वाले विरोधाभासों का इस्तेमाल करता है। तभी तो अमरीका बार-बार नए अफ़ग़ानिस्तान के निर्माण में भारत को महत्त्वपूर्ण भूमिका सौंपने की बात करता है। और चोर रास्ते से भारत को फसा कर नीतियाँ अपनी लागू करना चाता है जब कि अफगानिस्तान भारत के लिए अलग से एक महत्पूर्ण अस्थान रहा है
यहाँ इस बात की चर्चा करना ज़रूरी है कि अफ़ग़ानिस्तान को लेकर भारत और अमरीका के हित ज़रा भी मेल नहीं खाते हैं। वाशिंगटन को अफ़ग़ानिस्तान की ज़रूरत बस एक ऐसे किले के रूप में है, जिसके माध्यम से वह ईरान पर दबाव बना सके और मध्य एशिया में अपने प्रभाव को बढ़ा सके। जबकि भारत चाहता है कि अफ़ग़ानिस्तान की परिस्थिति स्थिर और शांतिपूर्ण हो तथा ईरान को लेकर भी स्थिति तनावपूर्ण नहीं हो ताकि वह मध्य एशिया के देशों, रूस और पूर्वी यूरोप के देशों के साथ 'उत्तर-दक्षिण कोरिडोर' के माध्यम से आपसी सहयोग कर सके। इसलिए यह अमरीका की चालाकी नहीं तो और क्या है कि वह भारत को अफ़ग़ानिस्तान में और उसके आसपास पुलिसवाले की भूमिका सौंपना चाहता है।
मेरा मानना है कि अगर भारत और अमरीका के हित एक जैसे भी होते, तब भी शायद ही भारत अमरीका का पिछलग्गू बनकर अपनी स्वायत्ता खोने को तैयार होना चाहिए ।
में नहीं जानता की किस मजबूरी के तहत कोंग्रेस सरकार अमेरिका को इतना सहयोग कर रही है यह परवाह किये बगैर की इसमें भारत का हित है या अहित ? जय हिंद
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